3 short motivational story

 

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        3 short motivational story ….

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1.जहाँ पुण्य वहाँ लक्ष्मी

2.सुखी कौन

3.भक्षक से रक्षक बड़़ा

              

जहाँ पुण्य वहाँ लक्ष्मी

(short motivational story)

एक सेठ के पास अपार सम्पति थी। अतुल्य सम्पति होते हुए भी वह सेठ बहुत धार्मिक था। उसके विचार और व्यवहार में धर्म था। प्रतिदिन वह भगवान की पूजा किया करता था और फिर साधु-संतो की अमृतवाणी सुनकर जीवन को पवित्र बनाता था। सेठजी वास्तव मे भाग्यशाली थे क्योंकि उनके जीवन मे बैचेनी अशान्ति और पीडा नही थी। उनके परिवार मे एकता, शरीर में स्वस्थता तथा हदय मे भगवान की भक्ति थी। कुछ ही दिनों मे समय का चक्र ऐसा बदला कि सेठ के पुण्य में कमी आ गई। कुसंगति के कारण बेटे बुरी आदतों मे फँस गये और घर मे क्लेश का वातावरण दिनोंदिन बढ़ता रहा सेठ जी का भी मन अशान्त रहने लगा। एक रात सेठ जी के सपने मे लक्ष्मी जी ने आकर कहा-सेठ, अब मै तुम्हारे घर से चली जाऊँगी क्योंकि आपके पुण्य का खजाना खत्म हो रहा है। गृह क्लेश खूब बढ़़ रहा है। आपके चारों बेटे कुसंगति मे फँस गये है। अतः अब मेरा निवास यहाँ कठिन है। आज से आठवें दिन मे इस घर को छोडकर चली जाऊंगी। सुबह जागने पर सेठ जी ने विचार किया कि लक्ष्मी जाने ही वाली है तो मै इसका पूरा सदउपयोग क्यों न कर लूं। इस धन के तो तीन प्रकार की ही गति होती है- दान, भोग और नाश। दान धर्म की अराधना से मै धन को सार्थक करता चाहता हूँ।

     दूसरे दिन सेठ ने अपने चारों पुत्रों को बुलाया उन्हे अपना अपना हिस्सा देकर अलग अलग किया फिर अपनी निजी सम्पति को धार्मिक कार्यो मे लगा दिया। दिल खोलकर दान किया। अनेकों मंदिरो के निर्माणार्थ पैसे लगवा दिये विधालय और वृद्धाश्रम बनवाने मे सहयोग दिया। शेष सारी संपति गरीबों के अन्न और वस्त्र वितरण करने में लगा दी। इस प्रकार सेठ ने सात दिन तक सारी लक्ष्मी को दान धर्म मे लगा दिया और प्रसन्न चित्त से भगवान की पूजा भक्ति में तल्लीन हो गया। आठवें दिन जैसे ही सूर्योदय हुआ तो लक्ष्मी ने सेठजी को दर्शन देते हुए कहा- सेठ जी। अब मे आपके घर को छोडकर जा नही सकती। सेठ जी ने पूछा- क्यों ! लक्ष्मी ने कहा- पिछले सात दिनों मे तुमने इतना पुण्य कमा लिया है। जिसके कारण मे बंध गई हूँ। मै आपके पुण्य कार्य से बहुत ही प्रसन्न हूँ। अब आप जो चाहे वरदान माँगो में वह देने के लिए तैयार हूँ।

      सेठ जी ने कहा- हे माँ लक्ष्मी मुझे कुछ नही चाहिए सिर्फ मेरे परिवार को सद्बुद्धि देना जिससे घर स्वर्ग बन जाए। लक्ष्मी जी ने तथास्तु कहकर अंतर्धान हो गई। दूसरे दिन से परिवार का माहौल की बदल गया। सेठ का जीवन फिर से शांति और प्रेम की सुवास से महकने लगा।

     महात्मा व् ज्ञानी पुरूषों ने यही कहा है कि यहाँ जो भी मिलता है वह अपने ही पुण्य का फल है। लक्ष्मी पुण्य के अधीन है अतः लक्ष्मी के पीछे न दौडकर पुण्योपार्जन के पीछे दौडना चाहिए। जब भी जीवन में पुण्य कर्म करने का अवसर आए तो उसका पूरा लाभ उठाना चाहिए।

 

 

सुखी कौन

(short moral story)

एक सिद्ध पुरूष महात्मा थे। उनके पास एक भक्त आया और साष्टांग नमस्कार किया। महात्मा ने उसे उपदेश देते हुए कहा- भक्त, धर्म ओर भजन किया करो। मनुष्य जन्म बार बार नही मिलता। भक्त- महात्मा जी। आपका फरमान अक्षरशः सत्य है किन्तु आज के विषम युग मे परिवार वालों का भरण पोषण करना बड़ी टेड़ी खीर है। सारे दिन दौड़ धूप करने के बाद बड़़ी मुश्किल से पेट भर खाना मिलता है। अगर कहीं आजीविका का प्रबन्ध हो जाए तो भजन करने की इच्छा है। महात्मा-भक्त, अगर तुझे प्रतिदिन एक रूपया मिल जाये तब तो भगवान का भजन करेगा। भक्त- योगिराज, ऐसा हो जाये तो कहना ही क्या। फिर तो मै ऐसा भजन करूं कि भगवान और मै एक बन जाऐं।

    महात्मा ने उसकी हथेली पर एक लिख दिया। त्यों त्यों करकें प्रतिदिन उसे एक रूपया मिल जाता था। घर का काम चलने लगा। कुछ दिनों बाद महात्मा जी से उसकी मुलाकात हुई। महात्मा ने कहा- अब भी तुम भजन नही करते हों यह क्या बात है। भक्त- महराज, कितनी महंगाई है। एक रूपये से घरेलू खर्च कैसे निभ सकता है। महात्मा- भक्त, तो फिर तुम क्या चाहते हो। भक्त- करूणानिधि। दस रूपये प्रतिदिन मिल जाए, तो खर्च अच्छी तरह चल जाये। महात्मा- रोज दस रूपये मिलने पर तो भगवान का भजन करेगा। भक्त - फिर तो मै सारा समय ही ईश्वर की भक्ति में लगा दुंगा।

    महात्मा ने उसके हाथ पर जो एक का अंक था उसके आगे एक शून्य और बढ़़ा दिया। अब उसको तीन सौ रूपये महीने के मिलने लगे। घरेलू खर्च भी बढ़ा। विवाह सगाई भी अपनी हैसियत के अनुसार होने लगे। कुछ दिनो पश्चात् फिर उसे महात्मा जी मिले- भक्त अब भी तू भजन नही करता। क्या दस रूपये मे भी काम नही चल पा रहा है। भक्त- दीनदयाल, क्या करू खर्च बढ़ गया है। परिवार वालों का भार सिर पर बहुत है। इज्जत के हिसाब सब काम करना पड़ता है। आप सिद्ध पुरूष है। यथोचित देने के लिए आप कल्पतरू है। कृपा करके कुछ आमदनी और बढ़ा दीजिए। महात्मा ने उसके हाथ पर एक बिन्दु और बढ़ा दिया और कहा अब तो भगवान का भजन करेगा।

     भक्त ने हाथ जोडकर कहा- योगिराज मेरे पर आपने बड़ी कृपा की है।अब तो मै अपना सारा जीवन भगवान् की भक्ति मे ही गुजारूंगा। अब उसको रोजाना के सौ रूपये यानी महीने के तीन हजार रूपये मिलने लगे। फिर भी उसकी लालसा शान्त नही होने वाली थी। अब भी कहाँ भजन के लिए समय मिलने वाला था। इन्सान की इच्छाओं का अन्त नहीं है ज्यों ज्यों आय बढ़ती है, त्यों त्यों लोभ बढ़ता है किन्तु सुखी वह होगा जिसने इच्छाओं का दमन कर लिया।

 

भक्षक से रक्षक बड़़ा

(short motivational story )

एक समय की बात है भगवान बुद्ध के चचेरे भाई देवदत्त ने एक बार एक हंस को बाण मारा और हंस बाण से बींधा गया। वह सीधा भगवान बुद्ध के गोद मे आ गया। देवदत्त उनके पास आया और अपना शिकार माँगा। मगर करूणाशील बुद्ध ने उसे अपना शिकार देने से मना कर दिया। दोनो मे संघर्ष छिड़ गया। अन्त मे इस संघर्ष को शाक्य न्यायसभा के उच्चतम न्यायाधीश के सामने पेश किया गया। न्यायमूर्ति ने दोनो की बात सुनकर कहा- मै इस हंस को अपने हाथ मे लेकर छोडूंगा। जिसकी गोद मे वह स्वतः चला जाएगा उसी को हंस मिल जाएगा। न्यायाधीश ने वैसा ही किया। वह घायल हंस न्यायमूर्ति के हाथ से छूटते ही अपने प्राणरक्षक बुद्ध की गोद मे आ गया। अब तो देवदत्त को भी मानना पड़़़ा कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा हुआ करता है।

    इसी प्रसंग पर कविवर मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ है-

 

       कोई निरपराध को मारों। तो क्यों अन्य उसे न उबारे।

          रक्षक से भक्षक को वारे। न्याय दया का दानी।।

 

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